धर्म समाज

शासन-प्रशासन ने शुरू की चारधाम यात्रा की तैयारी, 7 फरवरी को बैठक

बदरीनाथ। अक्षय तृतीया (22 अप्रैल) से चारधाम यात्रा शुरू हो जाएगी। श्री गंगोत्री-यमुनोत्री धाम के कपाट धार्मिक परंपराओं के तहत अक्षय तृतीया के दिन खुलते है। जबकि, श्री बदरीनाथ धाम के कपाट 27 अप्रैल, श्री हेमकुंट साहिब के कपाट मई माह में खुलेंगे।

चारधाम यात्रा शुरू होने में दो माह का समय बचा है। सरकार, शासन और जिला प्रशासन ने यात्रा की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। मंडलायुक्त सुशील कुमार ने चारधाम प्रशासन संगठन की सात फरवरी को बैठक बुलाई है। नगर निगम ऋषिकेश के स्वर्ण जयंती सभागार में चारधाम यात्रा से जुड़े तमाम विभागों के अधिकारी हिस्सा लेंगे।
यात्रा प्रशासन संगठन के विशेष कार्याधिकारी व अपर आयुक्त नरेंद्र सिंह क्वीरियाल ने बताया कि बैठक में चारधाम यात्रा व्यवस्थाओं की तैयारियों की रुपरेखा तय होगी। बैठक में पर्यटन विकास परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, पुलिस उप महानिरीक्षक, गढ़वाल मंडल के समस्त जिलाधिकारी, उप जिलाधिकारी, पुलिस, पर्यटन, चिकित्सा, परिवहन, बिजली, पेयजल, सीमा सड़क संगठन, राष्ट्रीय राजमार्ग, पीडब्ल्यूडी, पेयजल, खाद्यान्न, नगर निगम, पंचायती राज, वन विभाग, दूरसंचार, श्री बदरी-केदार मंदिर समिति, गुरुद्वारा हेमकुंट साहिब, स्थानीय परिवहन कंपनियों के प्रतिनिधि एवं शीर्ष अधिकारी शामिल होंगे।
अपर आयुक्त क्वीरियाल ने बताया कि अक्षय तृतीया (22 अप्रैल) से चारधाम यात्रा शुरू हो जाएगी। श्री गंगोत्री-यमुनोत्री धाम के कपाट धार्मिक परंपराओं के तहत अक्षय तृतीया के दिन खुलते है। जबकि, श्री बदरीनाथ धाम के कपाट 27 अप्रैल, श्री हेमकुंट साहिब के कपाट मई माह में खुलेंगे। श्री केदारनाथ धाम के कपाट खुलने की तिथि 18 फरवरी शिवरात्रि के दिन तय की जाएगी।
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कल हैं षटतिला एकादशी, जानिये इस एकादशी का महत्व और पढ़े पूरी कथा

धर्मडेस्क@झूठा-सच: एकादशी में एक षटतिला एकादशी भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। षटतिला एकादशी हर साल माघ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को मनाई जाती है। षटतिला एकादशी का व्रत इस साल 18 जनवरी 2023 यानि बुधवार को रखा जाएगा। षटतिला एकादशी के दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की जाती है। जो व्यक्ति इस दिन पूरे मन से पूजा-अर्चना करता है उसे पापों और उसे अपने जीवन में हर तरह के कष्ट और रोग से मुक्ति मिलती है। इस दिन तिल के उपाय करने से अनेक तरह की समस्याओं से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। 

 

षट्तिला एकादशी का महात्म

एक समय दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा कि हे महाराज, पृथ्वी पर मनुष्य पराए धन की चोरी, ब्रह्महत्या जैसे बड़े पाप करते हैं, इतना ही नहीं दूसरों को आगे बढ़ता देखकर ईर्ष्या करते हैं। इसके बाद भी उन्हें नरक प्राप्त नहीं होता। आखिर इसका कारण क्या है। ये लोग ऐसा कौनसा का दान और पुण्य कार्य करते हैं जिनसे उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। जरा इसके बारे में विस्तार से बताइए।पुलस्त्य मुनि कहने लगे हे महाभाग! आपने मुझे बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है। इस प्रश्न से संसार के जीवों का भला होगा। इस राज को तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इंद्र आदि भी नहीं जानते हैं। लेकिन मैं आपको यह गुप्त भेद जरूर बताऊंगा। उन्होने कहा कि माघ मास जैसे ही लगता है तो मनुष्य को स्नान आदि करके शुद्ध रहना चाहिए। अपनी इंद्रियों को वश में करके काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष आदि का त्याग कर भगवान का स्मरण करना चाहिए। पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उनके कंडे बनाने चाहिए। इसके बाद उन कंडों से 108 बार हवन करना चाहिए। इस दिन अच्छे पुण्य देने वाले नियमों का पालन करना चाहिए। एकादशी के अगले दिन भगवान को पूजा आदि करने के बाद खिचड़ी का भोग लगाएं

 

षट्तिला एकादशी की व्रत कथा

इस कथा का उल्लेख श्री भविष्योत्तर पुराण में इसस प्रकार उल्लेखित किया गया है। पुराने समय में मृत्यु लोक में एक ब्राह्मण रहती थी। वह हमेशा व्रत और पूजा पाठ में लगी रहती थी। बहुत ज्यादा उपवास आदि करने से वह शारीरिक रुप से कमजोर हो गई थी। लेकिन, उसने ब्राह्मणों को अनुदान करके काफी प्रसन्न रखा। लेकिन, वह देवताओं को प्रसन्न नहीं कर पाई। एक दिन श्रीहरि स्वयं एक कृपाली का रुप धारण कर उस ब्रह्माणी के घर भिक्षा मांगने पहुंचे। ब्रह्माणी ने आक्रोश में आकर भिक्षा के बर्तन में एक मिट्टी का डला फेंक दिया  इस व्रत के प्रभाव से जब मृत्यु के बाद वह ब्रह्माणी रहने के लिए स्वर्ग पहुंची तो उसे रहने के लिए मिट्टी से बना एक सुंदर घर मिला। लेकिन, उसमें खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। उसने दुखी मन से भगवान से प्रार्थना की कि मैंने जीवन भर इतने व्रत आदि, कठोर तप किए हैं फिर यहां मेरे लिए खाने पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसपर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि इसका कारण देवांगनाएं बताएंगी, उनसे पूछो। जब ब्रह्मणी ने देवांगनाओं से जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि तुमने षट्तिला एकादशी का व्रत नहीं किया। पहले षट्तिला एकादशी व्रत का महात्म सुन लो। ब्रहामणी ने उनके कहेनुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से उसके घर पर अन्नादि समस्त सामग्रियों से युक्त हो गया। मनुष्यों को भी मूर्खता आदि का त्याग करके षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिल आदि का दान करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से आपका कष्ट दूर होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

षट्तिला एकादशी का व्रत

यह व्रत माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को रखा जाता है। दरअसल, इस एकादशी पर छह प्रकार के तिलों का प्रयोग किया जाता है। जिसके कारण इसका नामकरण षट्तिला एकादशी व्रत पड़ा। इस व्रत को रखने से मनुष्यों को अपने बुरे पापों से मुक्ति मिलती है। इस व्रत को रखने से जीवन में सुख समृद्धि आती है।

 

षट्तिला एकादशी की पूजा विधि

षट्तिला एकादशी के दिन शरीर पर तिल के तेल से मालिश करना, तिल के जल में पान एंव तिल के पकवानों का सेवन करने का विधान है। सफेद तिल से बनी चीजें खाने का महत्व अधिक बताया गया है। इस दिन विशेष रुप से हरि विष्णु की पूजा अर्चना की जानी चाहिए। जो लोग व्रत रख रहें है वह भगवान विष्णु की पूजा तिल से करें। तिल के बने लड्डू का भोग लगाएं। तिलों से निर्मित प्रसाद ही भक्तों में बांटें। व्रत के दौरान क्रोध, ईर्ष्या आदि जैसे विकारों का त्याग करके फलाहार का सेवन करना चाहिए। साथ ही रात्रि जागरण भी करना चाहिए। इस दिन ब्रह्मण को एक भरा हुआ घड़ा, छतरी, जूतों का जोड़ा, काले तिल और उससे बने व्यंजन, वस्त्रादि का दान करना चाहिए।

 

 
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आज शाम से लगेगी षटतिला एकादशी, भूलकर भी न करें ये गलतियां

   षट्तिला का मतलब है 6 तिल यानि 6 तरीके से तिल का प्रयोग. ज्योतिष के जानकारों की मानें तो तिल के दिव्य प्रयोगों से जीवन में ग्रहों के कारण आ रही बाधाओं को दूर किया जा सकता है.तिल पौधे से प्राप्त होने वाला एक बीज है. इसके अंदर तैलीय गुण पाये जाते हैं. तिल के बीज दो तरह के होते हैं- सफेद और काले. पूजा के दीपक में या पितृ कार्य में तिल के तेल का प्रयोग ज्यादा होता है. शनि की समस्याओं के निवारण के लिए काले तिल का दानों का प्रयोग किया जाता है. षट्तिला एकादशी में तिल के प्रयोग को बहुत ही श्रेष्ठ माना गया है. इसमें 6 तरीकों से तिल का प्रयोग होता है.

 धर्मडेस्क@झूठा-सच: हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। पद्मपुराण में एकादशी का बहुत ही महात्मय बताया गया है एवं उसकी विधि विधान का भी उल्लेख किया गया है।इन्ही में से एक हैं षटतिला एकादशी.हिंदू पंचांग के अनुसार, माघ महीने के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि 17 जनवरी 2023 यानि आज शाम 6 बजकर 5 मिनट से लेकर अगले दिन 18 जनवरी 2023 को शाम 4 बजकर 3 मिनट तक रहेगी. उदिया तिथि के चलते 18 जनवरी को षट्तिला एकादशी का व्रत रखा जाएगा. इसका पारण 19 जनवरी सुबह 07.15 से लेकर सुबह 09.29 तक किया जाएगा.


षट्तिला एकादशी के 6 प्रयोग

  • तिल स्नान
  • तिल का उबटन
  • तिल का हवन
  • तिल का तपर्ण
  • तिल का भोजन
  • तिल का दान

कैसे रखें षट्तिला एकादशी का व्रत?

षट्तिला एकादशी का व्रत दो प्रकार से रखा जाता है- निर्जल व्रत और फलाहारी या जलीय व्रत. निर्जल व्रत पूर्ण रूप से स्वस्थ्य व्यक्ति को ही रखना चाहिए. सामान्य लोगों को फलाहारी या जलीय उपवास रखना चाहिए. इस व्रत में तिल स्नान, तिल युक्त उबटन लगाना चाहिए. तिल युक्त जल और तिल युक्त आहार का ग्रहण करना चाहिए.

पूजन विधि

षटतिला एकादशी के दिन गंध, फूल, धूप दीप, पान सहित विष्णु भगवान की षोडशोपचार से पूजा की जाती है. इस दिन उड़द और तिल मिश्रित खिचड़ी बनाकर भगवान को भोग लगाने की परंपरा है. रात को तिल से 108 बार 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा' मंत्र से हवन करें. रात को भगवान के भजन करें और अगले दिन ब्राह्मणों को भोजन कराएं.

 षटतिला एकादशी पर न करें ये काम

  • इस दिन तामसिक भोजन (लहसुन-प्याज) के अलावा मांस-मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन सात्विक भोजन करना चाहिए।
  • इस दिन जिस व्यक्ति से व्रत रखा है वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करें। इसके साथ ही जमीन में ही विश्राम करें।
  • इस दिन अपने क्रोध को शांत रखना चाहिए। किसी से वाद विवाद नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही किसी से झूठ न बोले।
  • इस दिन चावल के अलावा बैंगन का सेवन करने से बचना चाहिए।
  • इस दिन पेड़-पौधों को बिल्कुल नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए।
  • इस दिन दातुन नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस दिन टहनियों को तोड़ने की मनाही होती है।

 षटतिला एकादशी पर करें ये काम

  • षटतिला एकादशी के दिन गंगा स्नान जरूर करना चाहिए।
  • इस दिन दान करने का विशेष महत्व है। इस दिन तिल से बनी चीजों का विशेष रूप से दान करें।
  • इस दिन भगवान विष्णु को तिल का भोग लगाने के साथ पंचामृत में तिल मिलाकर स्नान करना चाहिए।
  • स्नान करने वाले पानी में तिल जरूर डालने चाहिए।
  • इस एकादशी पर व्रत की कथा सुनने के बाद हवन के समय तिल की आहुति जरूर दें।
  • षटतिला एकादशी के दिन तिल से पितरों का तर्पण जरूर करें।

 

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आज से रुक जाएंगे मांगलिक कार्य , खरमास शुरू.. पढ़िये क्या उपाय करे और क्या न करे

 धर्म डेस्क @झूठा-सच : आज शुक्रवार को  शाम 7 बजकर 5 मिनट पर सूर्य के धनु राशि में प्रवेश करते ही खर मास शुरू हो जाएगा। खर मास में विवाह, नूतन गृह प्रवेश, नया वाहन, भवन क्रय करना, मुंडन जैसे शुभ कार्यों पर एक माह के लिए प्रतिबंध लग जाएगा। यह खर मास 14 जनवरी 2023  को सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ ही समाप्त हो जाएगा।खरमास की कथा के अनुसार, इस माह में सूर्य देव के रथ में खर यानि गधे जुड़ जाते हैं, जिससे उनकी गति धीमी हो जाती है. 


ऐसा माना जाता है कि  सूर्य देव धनु राशि में प्रवेश करेंगे, उस दिन धनु संक्रांति होगी. धनु संक्रांति से खरमास का प्रारंभ हो जाएगा. इसमें कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होगा. सूर्य देव करीब एक माह तक धुन राशि में रहते हैं, इसलिए खरमास भी एक माह तक होता है. सूर्य जब धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो मकर संक्रांति होती है. उस दिन खरमास का समापन होता है. इस साल 16 दिसंबर से 14 जनवरी 2023 तक खरमास रहेगा. 15 जनवरी 2023 को मकर संक्रांति के दिन खरमास का समापन होगा.

ज्योतिषाचार्य के अनुसार धनु संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति से पूर्व तक सूर्य धीमी गति से चलता है और इस समय में बृहस्पति ग्रह का प्रभाव भी कम होता है, इस वजह से खरमास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होता है. आइए जानते हैं कि खरमास में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए.

खरमास में क्या उपाय करें
1. खरमास पौष माह में होता है, यह माह सूर्य का है. इस वजह से आपको सूर्य देव की पूजा प्रतिदिन करनी चाहिए. नियमित तौर पर स्नान के बाद सूर्य देव को जल अर्पित करें और सूर्य मंत्र का जाप करें.

2. खरमास में भगवान विष्णु और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए. इससे आपके कष्ट दूर होंगे और मनोकामनाएं पूरी होंगी.

3. गुरु ग्रह की पूजा खरमास में विशेष तौर पर करनी चाहिए क्योंकि इस समय उसका प्रभाव कम होता है. देव गुरु बृहस्पति की पूजा और उनके मंत्रों का जाप करने से आपको सफलता, मान, सम्मान की प्राप्ति होगी.

4. इस समय में आप प्रतिदिन अपने माता पिता के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लें. आपके सूर्य और चंद्र ग्रह दोनों ही मजबूत होंगे.

5. खरमास में आप तुलसी की पूजा करें और संध्या दीपक जलाएं. इससे भी सुख और शांति में वृद्धि होती है.

6. खरमास के समय में सूर्य देव को तिल और चावल की खिचड़ी का भोग लगाएं. दान पुण्य करें. आपके कार्य सफल होंगे. 

खरमास में क्या न करें
1. खरमास को एक अशुभ फल प्रदान करने वाला समय माना जाता है, ऐसे में आपको कोई बिजनेस, नया प्रोजेक्ट या कोई नया कार्य न प्रारंभ करें.

2. खरमास में गृह प्रवेश, विवाह, सगाई, मुंडन, उपनयन संस्कार आदि करना पूर्णतया वर्जित है.

3. यदि बेटी या बहुरानी की विदाई करनी है तो आप खरमास से पहले या बाद में करें. खरमास में विदाई नहीं करते हैं.

4. खरमास में आप किसी भी देवी या देवता का अपमान न करें अन्यथा आपको कष्ट भोगना होगा. मृत्यु के बाद नरक की यातनाएं सहनी होती हैं.

5. खरमास के समय में आप किसी भी भिखरी को अपने दरवाजे से न भगाएं. यदि ऐसा करते हैं तो ऐसी घटना आपके लिए ही कष्टकारी हो सकती है.

6. खरमास में अपने से बड़े और बुजुर्गों का अपमान नहीं करना चाहिए. ऐसा करने पर आपको सूर्य और गुरु ग्रह के दुष्प्रभाव झेलने पड़ सकते हैं.
 
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पढ़िए खरमास की कहानी , जानें क्यों माना जाता है इस माह को अशुभ ,लेकिन पढ़ने-सुनने से मिलता है अक्षय पुण्य....पढ़े पूरी खबर

धर्म डेस्क @झूठा-सच :- पौराणिक ग्रंथों के अनुसार खरमास की कहानी कुछ यूं है। भगवान सूर्यदेव 7 घोड़ों के रथ पर सवार होकर लगातार ब्रह्मांड की परिक्रमा करते रहते हैं। उन्हें कहीं पर भी रुकने की इजाजत नहीं है। उनके रुकते ही जनजीवन भी जो ठहर जाएगा। लेकिन जो घोड़े उनके रथ में जुते होते हैं, वे लगातार चलने व विश्राम न मिलने के कारण भूख-प्यास से बहुत थक जाते हैं।

उनकी इस दयनीय दशा को देखकर सूर्यदेव का मन भी द्रवित हो गया। भगवान सूर्यदेव उन्हें एक तालाब किनारे ले गए लेकिन उन्हें तभी यह भी आभास हुआ कि अगर रथ रुका तो अनर्थ हो जाएगा। लेकिन घोड़ों का सौभाग्य कहिए कि तालाब के किनारे दो खर मौजूद थे।

अब भगवान सूर्यदेव घोड़ों को पानी पीने व विश्राम देने के लिए छोड़ देते हैं और खर यानी गधों को अपने रथ में जोड़ लेते हैं। अब घोड़ा, घोड़ा होता है और गधा, गधा। रथ की गति धीमी हो जाती है फिर भी जैसे-तैसे 1 मास का चक्र पूरा होता है, तब तक घोड़ों को भी विश्राम मिल चुका होता है। इस तरह यह क्रम चलता रहता है और हर सौरवर्ष में 1 सौरमास 'खरमास' कहलाता है।

खरमास अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 16 दिसंबर के आसपास सूर्यदेव के धनु राशि में संक्रमण से शुरू होता है व 14 जनवरी को मकर राशि में संक्रमण न होने तक रहता है। इसी तरह 14 मार्च के आसपास सूर्य, मीन राशि में संक्रमित होते हैं। इस दौरान लगभग सभी मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं।

 

 

 

 
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कौन हैं हिन्दी साहित्य जगत में 'दद्दा..? कैसे मिली उन्हे राष्ट्रकवि की उपाधि...पढ़िये पूरी खबर

संपादकीय डेस्क @झूठा-सच : काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से पूरे देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देश भर में प्रवाहित किया था, राष्ट्रकविमैथिलीशरण गुप्त ने। इसलिए हिन्दी साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी को किया जाता था। बचपन में आप ने स्कूल में इनकी लिखी कविताएं जरूर पढ़ी होगी। अगर नहीं पढ़ी हैं तो आज हम आपको इस लेख से बताने वाले हैं  कौन हैं राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त उनके लिखे रचनाएं।

मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पहले  ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य–मान ग्रन्थ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य–कला में निखार आया और उनकी रचनाएँ 'सरस्वती' में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74 रचनाएँ प्रदान की हैं। जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।
 
 
 
 
 

मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम 'सेठ रामचरण' और माता का नाम 'श्रीमती काशीबाई' था। पिता रामचरण एक निष्ठावान् प्रसिद्ध राम भक्त थे।  इनके पिता 'कनकलता' उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वे बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने इनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि "तू आगे चलकर हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा" और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ।  उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। 

मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव, झाँसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहाँ इनका मन न लगा और दो वर्ष बाद ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया । लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें 'आल्हा' पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

काव्य प्रतिभा
इसी बीच गुप्तजी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आये और उनके प्रभाव से इनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब ये दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' पत्र में प्रकाशित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झाँसी के रेलवे ऑफिस में चीफ़ क्लर्क थे, तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वे द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की।

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।

महाकाव्य
 मैथिलीशरण जी की प्रसिद्धि का मूलाधार भारत–भारती है। भारत–भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य हैं। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। यशोधरा में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केन्द्र में है। यशोधरा की मनःस्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है। विष्णुप्रिया में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केन्द्र में है। वस्तुतः गुप्त जी ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित 'काव्येर उपेक्षित नार्या' शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने प्रबन्ध काव्यों में उपेक्षित, किन्तु महिमामयी नारियों की व्यथा–कथा को चित्रित किया और साथ ही उसमें आधुनिक चेतना के आयाम भी जोड़े।

भारत-भारती
'भारत-भारती', मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देने वाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। यह सामग्री तीन भागों में बाँटी गयी है।

भारतवर्ष के दर्शन पर वे कहते हैं-
पाये प्रथम जिनसे जगत् ने दार्शनिक संवाद हैं-
गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजली, व्यास और कणाद है।
नीति पर उनके द्विपद ऐसे हैं-
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनीतिक ग्रन्थ हैं-
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं।
सूत्रग्रंथ के सन्दर्भ में ऋषियों के विद्वत्ता पर वे लिखते हैं-
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया।

वर्तमान-खंड
दारिद्र्य, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उस समय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामाजिक नूतनता की माँग रखी गयी है।

अपनी हुई आत्म-विस्मृति पर वे कहते हैं-
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे,
है ध्यान अपने मान का, हममें बताओ अब किसे!
पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी।

नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों, संत-महंतों और ब्राह्मणों की निष्क्रियता और मिथ्या-व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं। इस तरह कविवर की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज उनके सुधार की माँग करती है। हमारे सामाजिक उत्तरदायित्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी 'वर्तमान खंड' आशा की गाँठ को बाँधे रखती है।
भविष्यत्-खंडअपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए राष्ट्रकवि ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आवाहन करने का भरसक प्रयास किया है।

राष्ट्रकवि
अपने साहित्यिक गुरु महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्त जी ने 'भारत-भारती' की रचना की। 'भारत-भारती' के प्रकाशन से ही गुप्त जी प्रकाश में आये। उसी समय से आपको 'राष्ट्रकवि' के नाम से अभिनंदित किया गया। उनकी साहित्य साधना सन् 1921 से सन् 1964 तक निरंतर आगे बढ़ती रही। गुप्त जी युग-प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि थे। इस अर्ध-शताब्दी की समस्त सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक हलचलों का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाओं में मिल जाता है। इनके काव्य में राष्ट्र की वाणी मुखर हो उठी है। देश के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या दासता से मुक्ति थी। गुप्त जी ने 'भारत-भारती' तथा अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की। इन्होंने अतीत गौरव का भाव जगाकर वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा दी। अपनी अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं-

"मानव-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती।"

प्रमुख कृतियाँ

'भारत–भारती' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
मैथिलीशरण के नाटकों में 'अनघ' जातक कथा से सम्बद्ध बोधिसत्व की कथा पर आधारित पद्य में लिखा गया नाटक है।

प्रमुख कृतियाँ 
  1. नाम                   प्रकाशित वर्ष
  2. जयद्रथ वध             1910
  3. भारत–भारती     1912
  4. पंचवटी             1925
  5. साकेत             1933
  6. यशोधरा             1932
  7. विष्णुप्रिया             1957
  8. झंकार             1929
  9. जयभारत             1952
  10. द्वापर                     1936
  11. कुणाल गीत
  12. अजित
  13. अर्जन और विसर्जन
प्रमुख नाटक
मौलिक नाटक
अनघ
चरणदास
निष्क्रिय प्रतिरोध
विसर्जन
 

 

भास नाटक
स्वप्नवासवदत्ता
प्रतिमा
अभिषेक
अविमारक

गुप्त जी की 52 से भी अधिक काव्य रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ अनूदित भी हैं। उन्होंने 'मधुप' उपनाम से 'विरहणी ब्रजांगन', 'प्लासी का युद्ध' और 'मेघनाद वध' नामक बंगला काव्य कृतियों का अनुवाद किया है तथा कुछ संस्कृत नाटकों के अनुवाद भी किये। इसी प्रकार 'रुबाइयात उमरखय्याम' भी उमर खयाम की रुबाइयों का हिन्दी रूपान्तर है। इनकी उल्लेखनीय मौलिक रचनाओं की तालिका में- रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबंध, भारत भारती, शकुंतला, तिलोत्तमा, चंद्रहास, पत्रावली, वैतालिका, किसान, अनघ, पंचवटी, स्वदेश संगीत, हिन्दू, विपथगा, शक्ति विकटभट, गुरुकुल, झंकार, साकेत, यशोधरा, सिद्धराज, द्वापर, मंगलघट, नहुष, कुणालगीत , काबा और कर्बला, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि आते हैं।

पुरस्कार व सम्मान
मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं। सन 1936 में इन्हें काकी में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। इनकी साहित्य सेवाओं के उपलक्ष्य में आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इन्हें डी. लिट. की उपाधि से विभूषित भी किया। 1952 में गुप्त जी राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए और 1954 में उन्हें 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 'साकेत' पर 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' तथा 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। 'हिन्दी कविता' के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

मृत्यु
मैथिलीशरण गुप्त जी का देहावसान 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही हुआ। इनके स्वर्गवास से हिन्दी साहित्य को जो क्षति पहुंची, उसकी पूर्ति संभव नहीं है।
 
झूठा-सच अखबार और jhuthasach.com की तरफ से मैथिलीशरण गुप्त जी के 58वीं पुण्यतिथि पर उन्हे नमन
 
 


 

 

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कल अखुरथ संकष्टी चतुर्थी पर ब्रह्म, रवि पुष्य और सर्वार्थ सिद्धि के शुभ योग और.....पढ़े

धर्मडेस्क@झूठा-सच :- अखुरथ संकष्टी चतुर्थी का व्रत करने से सभी संकट दूर होते हैं और गणेश जी के आशीर्वाद से जीवन में सुख, शांति और सफलता मिलती है.भगवान गणेश प्रथम पूजनीय देव हैं। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत गणेश जी की पूजा से ही होती है। भगवान गणेश को प्रसन्न करना काफी आसान होता है।हर साल पौष माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि पर अखुरथ संकष्टी चतुर्थी मनाई जाती है। इस दिन विधि-विधान से गौरी पुत्र भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है। हालांकि इस बार अखुरथ संकष्टी चतुर्थी 11 दिसंबर दिन रविवार को है.

तीन शुभ योग के साथ भद्रा का साया

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी पर तीन शुभ योग ब्रह्म, रवि पुष्य और सर्वार्थ सिद्धि योग बन रहे हैं. इस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग रात 08 बजकर 36 मिनट से अगले दिन सुबह 07 बजकर 04 मिनट तक है, वहीं रवि पुष्य योग भी इसी समय में है. ब्रह्म योग सुबह से लेकर अगले दिन प्रात: 05 बजकर 15 मिनट तक है. ये तीनों ही योग शुभ और सफलता प्रदान करने वाले हैं.अखुरथ संकष्टी चतुर्थी के दिन भद्रा भी है. हालां​कि 11 दिसंबर को जब चतुर्थी तिथि प्रारंभ होगी, तब तक भद्रा खत्म हो जाएगी. अखुरथ संकष्टी चतुर्थी के दिन भद्रा सुबह 07 बजकर 04 मिनट से शाम 04 बजकर 14 मिनट तक है.ऐसे में जो भी लोग अखुरथ संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखेंगे, वे भद्रा के प्रारंभ से पूर्व गणेश जी की पूजा कर लें या फिर शाम के समय में भद्रा समाप्ति पर पूजन करें.

चंद्रोदय का समय

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी के दिन चंद्रोदय रात में होता है क्योंकि कृष्ण पक्ष में चंद्रमा देर से उदित होता है. इस दिन चंद्रमा रात 08 बजकर 01 मिनट पर उदित होगा. व्रत रखने वाले इस समय चंद्रमा को अर्घ्य देंगे और पारण करके व्रत को पूरा करेंगे.

 अखुरथ संकष्टी चतुर्थी पूजा-सामग्री लिस्ट

भगवान गणेश की प्रतिमा,लाल कपड़ा,दूर्वा,जनेऊ,कलश,नारियल,पंचामृत,पंचमेवा,गंगाजल,रोली,मौली लाल

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी पूजा-विधि

सबसे पहले घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें। संभव हो तो इस दिन व्रत भी रखें।गणपित भगवान का गंगा जल से अभिषेक करें। भगवान गणेश को पुष्प अर्पित करें। भगवान गणेश को दूर्वा घास भी अर्पित करें। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दूर्वा घास चढ़ाने से भगवान गणेश प्रसन्न होते हैं।भगवान गणेश को सिंदूर लगाएं।भगवान गणेश का ध्यान करें।गणेश जी को भोग भी लगाएं। आप गणेश जी को मोदक या लड्डूओं का भोग भी लगा सकते हैं।इस व्रत में चांद की पूजा का भी महत्व होता है।शाम को चांद के दर्शन करने के बाद ही व्रत खोलें।

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी व्रत का महत्व

 

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी का व्रत और गणेश जी की पूजा करने से सुख और समृद्धि बढ़ती है. संकट दूर होते हैं. बलबुद्धि और विद्या में भी बढ़ोत्तरी होती है. गणेश जी की कृपा होने से अमंगल दूर होता हैअटके हुए काम पूर होते हैं. सफलता प्राप्त होती है.

 

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क्या ॐ नमः शिवाय को छोड़कर श्री शिवाय नमस्तुभ्यं ...पढ़िये पूरी खबर

धर्मडेस्क@झूठा-सच :-  ब्रह्म,विष्णु और महेश ये तीन नाम जो जगत के पालनहार हैं। अक्सर ये सवाल उठता है कि त्रिदेवों में सबसे बड़ा कौन है? तो बता दे आपको शिव पुराण में शिव सबसे बड़ा देवता, विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु सबसे बड़ा देवता, ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रहमा सबसे बड़ा देवता हैं लेकिन फिर भी त्रिदेव में भगवान शिव ही हैं जिन्हे देवो के देव महादेव के नाम से पुकारा जाता है। 

लेकिन आजकल संतों की नहीं, कथा वाचकों की लोग सुनने लगे हैं। कथाओं को कहने का तरीका भी बदल गया है। वर्तमान में एक कथावाचक बहुत प्रसिद्ध हो चले हैं, जिनका नाम है पंडित प्रदीप मिश्रा। वे कहते हैं कि शिवजी का पंचाक्षरी मंत्र श्री शिवाय नमस्तुभ्यं है- इसका जप करना चाहिए। इसे वे महामृत्युंजय मंत्र से भी ज्यादा शक्तिशाली बताते हैं। तो ऐसें में क्या अब हम शुरू से ॐ नमः शिवाय मंत्र को जपना छोड़ दें? नहीं, पुराणों के अनुसार आप ईश्वरकों जिस रूप मे भजेंगे वो आपको वैसे ही मिलेंगे। लेकिन किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले साधक को यह जान लेना चाहिए 

ॐ नमः शिवाय या श्री शिवाय नमस्तुभ्यं | 

श्री शिवाय नमस्तुभ्यं का अर्थ : श्री शिव मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं।

ॐ नमः शिवाय का अर्थ : ओंकार या ब्रह्म स्वरूप भगवान शिव को नमस्कार।
 
       कहते हैं कि ईश्वर के सभी स्वरूपों की उपासना के मंत्र ओम से ही प्रारंभ होते हैं। ॐ या ओम के बगैर मंत्र अधूरा माना जाता है। नमः शिवाय ही पंचाक्षरी मंत्र है जिसके आगे ओम लगाने से उसकी पूर्णता होती है और शिवजी के साथ ही निराकार ब्रह्म (ईश्वर) भी जुड़ जाता है। शिवजी का एक स्वरूप शिवलिंग के रूप में निराकार भी है। अत: नमः शिवाय इस पंचाक्षरी मन्त्र में प्रणव यानी ॐ लगाकर इसका जप करना ही उचित है।

तस्य वाचकः प्रणवः।।- तैत्तिरीयोपनिषद् १.२७॥ अर्थात उसका वाचक (नाम, इंगित करने वाला) प्रणव है। अस्य ओम नम: शिवाय पञ्चाक्षर मन्त्रस्य वामदेव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्री सदाशिवो देवता। अर्थात इस शिव पंचाक्षरमन्त्र के वामदेव ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सदाशिव देवता हैं)
जहां तक सवाल पंचाक्षरी मंत्र का है तो वह 'नम: शिवाय' ही है जिसमें ॐ लगाकर उसका जप किए जाने का ही उचित तरीका है। श्री शिवाय नमस्तुभ्यं पंचाक्षरी मंत्र नहीं है। हालांकि श्री शिवाय नमस्तुभ्यं मंत्र का जप भी किया जा सकता है क्योंकि भगवान को किसी भी तरीके या रूप में भजें वह आपके ही हैं। उल्लेखनीय है कि 'श्री' शब्द माता लक्ष्मी का नाम है। इसलिए कुछ साधू-संतों के मत अनुसार शिवजी के नाम के आगे इसका उपयोग नहीं होता है।
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साल का आखिरी महिना ,जानिए 1 से 31 दिसंबर में कौनसा दिन हैं खास....पढ़िए पूरी खबर

डेस्क@झूठा-सच :- साल 2022 का आखिरी महिना दिसम्बर हैं।ऐसें मे जानते हैं कि दिसंबर के महीने में आने वाले व्रत-त्योहार, महत्वपूर्ण दिवस, स्वतंत्रता सेनानियों की जयंती, पुण्यतिथि, संत-महापुरुषों के बारे में खास जानकारी..  

1 दिसंबर : विश्व एड्स दिवस

2 दिसंबर : महानंदा नवमी, राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस, विश्व कंप्यूटर साक्षरता दिवस, अंतरराष्ट्रीय दासता उन्मूलन दिवस

3 दिसंबर : भोपाल गैस त्रासदी दिवस, राजेंद्र प्रसाद जयंती, विश्‍व दिव्यांग दिवस, विकलांग दिवस

4 दिसंबर : मोक्षदा एकादशी व्रत, जल सेना दिवस, गीता जयंती, मौन एकादशी, ब्रह्मानंद लोधी जयंती

5 दिसंबर : विश्व मृदा दिवस, अनंग त्रयोदशी व्रत, सोम प्रदोष व्रत, दादा धूनीवाले निर्वाण दिवस, योगी अरविंद दिवस, अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस

6 दिसंबर : बाबासाहेब अंबेडकर की पुण्यतिथि

7 दिसंबर : भगवान दत्तात्रेय प्रकटोत्सव, व्रत की पूर्णिमा, सशस्त्र सेना झंडा दिवस, अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन दिवस

8 दिसंबर : मार्गशीर्ष शुक्ल स्ना.दा. पूर्णिमा

9 दिसंबर : अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस

10 दिसंबर : मानवाधिकार दिवस

11 दिसंबर : यूनिसेफ स्थापना दिवस, अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस, गणेश चतुर्थी व्रत, ओशो महोत्सव

12 दिसंबर : अंतरराष्ट्रीय सार्वभौमिक हेल्थ कवरेज

14 दिसंबर : राष्ट्रीय ऊर्जा बचत दिवस

15 दिसंबर : वल्लभ भाई पटेल दिवस

16 दिसंबर : खरमास प्रारंभ, सूर्य धनु संक्रांति, रुक्मिणी अष्टमी व्रत

17 दिसंबर : सौर पौष मा. प्रा.

18 दिसंबर : अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस, गुरु घासीदास जयंती, अल्पसंख्यक अधिकार दिवस (भारत)

19 दिसंबर : वर्ष 2022 की अंतिम सफला एकादशी व्रत, गोवा मुक्ति दिवस

20 दिसंबर : संत गाडगे बाबा निर्वाण दिवस, अंतरराष्ट्रीय मानव एकजुटता दिवस

21 दिसंबर : शिव चतुर्दशी और प्रदोष व्रत

22 दिसंबर : राष्ट्रीय गणित दिवस

23 दिसंबर : पौषी अमावस्या स्ना.दा.श्रा. अमावस्या, किसान दिवस

24 दिसंबर : राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस

25 दिसंबर : क्रिसमस दिवस, मुस्लिम मास जमादि उस्सानी प्रारंभ, सुशासन दिवस, अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिवस, ईसा मसीह और मदनमोहन मालवीय जयंती

26 दिसंबर : विनायकी चतुर्थी व्रत

27 दिसंबर : दिन 08.53 मिनट से पंचक का प्रारंभ, मिर्जा गालिब जयंती

29 दिसंबर : सिख धर्मगुरु, गुरु गोविंद सिंह जी की जयंती

30 दिसंबर : शाकंभरी नवरात्रि की शुरुआत होगी

31 दिसंबर : न्यू ईयर्स इवेंट, बैरवा जयंती।


 

 

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नाग दीपावली विशेष :- आज हुआ है राम-सीता विवाह

धर्मडेस्क@झूठा-सच :- हर महीने की पंचमी तिथि को नाग देवता का विशेष माना जाता हैं लेकिन नाग दीपवाली हर साल मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है. इस दिन नागों की विशेष पूजा का खास महत्व है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन विवाह पंचमी भी होने के कारण राम-सीता विवाहोत्सव पर्व मनाया जाता है।इस दिन अयोध्या और जनकपुर में विशेष तैयारियों के साथ प्रभु श्रीराम की बारात निकाली जाती है।

नाग दिवाली पर क्या करें, पूजन विधि-

नाग दिवाली के दिन नागों की पूजा का विधान है।इसी दिन विवाह पंचमी भी होने के कारण राम-सीता विवाहोत्सव पर्व मनाया जाता है।इस दिन अयोध्या और जनकपुर में विशेष तैयारियों के साथ प्रभु श्रीराम की बारात निकाली जाती है।नाग दिवाली के दिन नाग के प्रतीक के सामने दीपक जलाने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।इस दिन नाग पूजन करने से कुंडली में स्थित कालसर्प दोष का निवारण होकर जीवन की अड़चनों से मुक्ति मिलती है।इस दिन राम-सीता मंदिर में जाकर श्रृंगार का सामान दान करने से जीवनसाथी उम्र लम्बी होती हैं. गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है.मंदिरों में इस दिन विशेष अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं.

नाग दिवाली शुभ मुहूर्त 

पंचमी तिथि की शुरुआत : 27 नवंबर 2022 दिन रविवार को शाम 4:20 पर शुरुआत

पंचमी तिथि का समापन : 28 नवंबर 2022 दिन सोमवार को दोपहर 1:30 पर समाप्त होगी।

 28 नवम्बर 2022 का राहुकाल समय  :–- 08:13AM.-09:30AM.

 

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कौन हैं लाटू देवता..? पुजारी भी आंख-मुंह में पट्टी बांधकर पूजा करते है, क्यों जुड़ा हैं नाग दीपावली की पौराणिक कथा से....पढ़े पूरी खबर

धर्मडेस्क@झूठा-सच :- नाग दिवाली मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है. इस दिन नागों की विशेष पूजा का खास महत्व है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नागों को पाताललोक का स्वामी माना गया है. इसी दिन विवाह पंचमी भी होने के कारण राम-सीता विवाहोत्सव पर्व मनाया जाता है।इस मौके पर घरों में रंगोली बनाकर नाग के प्रतीक के सामने दीपक लगाने से मनोवांछित मिलते हैं. मान्यता है कि नाग देवता के पूजन से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान होता है. इनका कुंडली के कालसर्प दोष का पूरी तरह निवारण कर देता है. साथ ही जीवन में आ रही दुविधाओं का समाधान मिलता है

मनोकामना अवश्य होती है पूरी 

उत्तराखंड के चमोली जिले में वांण नामक गांव में नाग देवता का एक रहस्यमयी एवं अद्भुत मंदिर है, पौराणिक मान्यतानुसार यहां स्वयं नागराज विराजमान है और वह अपने अद्भुत नागमणि की रक्षा भी स्वयं ही करते हैं, जिस वजह से वे निरंतर विष छोड़ते रहते हैं। यह मंदिर समुद्र तल से कुल 8500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।यहां का स्थान देवदार के बड़े-बड़े वृक्षों से भरा हुआ है और इसी जगह के बीच लाटू देवता का एक मंदिर मौजूद है। यह मंदिर मां पार्वती के चचेरे भाई लाटू के नाम पर बनाया गया है। इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां के पुजारी आंखों और मुंह पर पट्टी बांधकर 75 से 80 फीट की दूरी से नागदेवता का पूजन करते हैं।यह स्थान देश और वहां के आसपास के क्षेत्र में लाटू देवता मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है। यहां के स्थानीय लोग लाटू देवता को ही अपना आराध्य मानते हैं। अत: यहां आनेवाले भक्त और श्रद्धालुगण लगभग भी 75 फीट दुरी से नागदेवता की पूजा-अर्चना करते हैं। इस मंदिर के कपाट वर्ष में एक ही बार वैशाख पूर्णिमा के दिन खुलते हैं। उस समय यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ होता है।मान्यता है कि यहां सच्चे हृदय से अगर कोई मनोकामना मांगे तो वह अवश्य पूरी होती है.

कन्नौज के राजा का छोटा बेटा है लाटू

नंदा देवी का कोई भाई नहीं था। एक दिन कैलाश में माँ नंदा देवी सोचती है कि अगर उसका भी कोई भाई होता तो उनसे मिलने जरूर आता। उसके लिये भिटोली ( विवाहित बेटी को दी जाने वाली भेंट ) लेकर आता। इससे उसे भी अपने मायके के कुशल समाचार मिल जाते।ऐसा सोचते हुए नंदा देवी को मायके की याद आने लग जाती है। और वह उदास हो जाती हैं। भगवान शिवजी ने देखा तो पूछा नंदा तुम चुपचाप क्यों बैठी हो। माँ नंदा देवी कहती हैं कि मेरे स्वामी, मेरे भगवान मुझे मायके की याद आ रही है। मेरा कोई भाई नहीं है। जो मेरा भाई होता तो मेरे पास आता कभी मेरे लिये भिटोली लाता तो कभी मायके से कलेवा।

तब फिर शिवजी कहते हैं कि कन्नौज के राजा का छोटा बेटा है लाटू , तुम उसे अपना धर्म भाई बना लो। इस पर नंदा देवी सोचती है कि अब तो उसे अपने मायके जाने का अवसर मिल जाएगा। नंदा कहती हैं कि क्या मैं अपने मायके जा सकती हूं। और वहां से कन्नौज जाऊंगी और लाटू को अपना भाई बनाकर साथ में लाऊंगी। तब लाटू मुझे ससुराल छोड़ने भी आएगा। माँ नंदा देवी का उत्साह देखकर भगवान भोलेनाथ मंदमंद मुस्कराते हैं और उन्हें मायके जाने की अनुमति दे देते हैं। नंदा देवी खुशी- खुशी अपने मायके रिसासु पहुंच गयी। और वह अपने पिताजी हेमंत और मां मैनावती से आज्ञा लेकर लाटू को अपना भाई बनाने के लिये कन्नौज चली गयी।कन्नौज की कुल देवी भी मां दुर्गा यानि पार्वती थी। जब नंदा वहां पहुंची तो उन्हें बहुत खुशी हुई। कन्नौज की रानी का नाम भी मैना था। उनके दो बेटे थे बाटू और लाटू, लेकिन उनकी कोई बेटी नहीं थी। नंदा को देखकर उन्हें लगा कि जैसे उनके घर में बिटिया आ गयी है। रानी मैना नंदा देवी से वहां आने का कारण पूछती है तब नंदा देवी कहती है कि मेरा कोई भाई नहीं है क्या मैं लाटू को अपना भाई बनाकर साथ में ले जा सकती हूं।रानी मैना पहले मना कर देती है लेकिन नंदा के फिर से आग्रह करने पर मान जाती है। इस तरह से नंदा देवी अपने भाई लाटू के साथ मायके लौट आती है। नंदा देवी बहुत खुश थी कि अब उसका भी भाई है जो अब उसके ससुराल में मायके की कुशल क्षेम और भिटोली लेकर आएगा।

माँ नंदा देवी गुस्से में लाटू देवता को कैद करने का दिया था आदेश 

जब नंदा देवी अपने ससुराल लौटती है। तो गांव वाले ही नहीं इलाके के सभी लोग उन्हें विदा करने के लिये आते हैं। नंदा देवी के साथ उनका भाई लाटू भी रहता है। नंदा देवी की डोली जब वॉण गांव में पहुंचती है तो वह नदी में नहाने के लिये चली जाती है। और इधर लाटू को तेज प्यास लगने लगती है तो वह एक घर में घुस जाता है जहां पर एक बुढ़ा आदमी मिलता हैं।लाटू ने बुढ़े आदमी से पानी देने के लिये कहता है। तो बुढ़ा कहता है, कि कोने में दो गगरी हैं उनमें से एक में पानी है खुद पी लो। लाटू एक गगरी में से सभी पानी पी जाता है। परन्तु असल में वहां एक गगरी में पानी तो दूसरी में स्थानीय कच्ची शराब होती है। जिसे लाटू गलती से कच्ची शराब पी जाता है। और उसको नशा चढ़ जाता है जिससे वह उत्पात मचाने लगता है। गाँव में कोहराम मचा देता हैं, जिससे सभी गाँव वाले परेशान हो जाते है। 

जिससे माँ नंदा देवी गुस्से में लाटू को बांधकर कैद करने का आदेश देती है, और कहती हैं कि उसे हमेशा यहीं पर कैद करके रखा जाए। जब लाटू का नशा उतरता है तो वह बहुत पछताता है। और माँ नंदा देवी से क्षमा मांगकर सारी बात बताता है, माँ नंदा देवी भी तब तक गलती का कारण समझ जाती है।

 

12 साल में जब नंदा राजजात जाएगी तो लोग लाटू देवता की भी पूजा

नंदा देवी तब लाटू देवता से कहती है कि वॉण गांव में उसका मंदिर होगा और बैशाख महीने की पूर्णिमा को उसकी पूजा होगी। और यही नहीं हर 12 साल में जब नंदा राजजात जाएगी तो लोग लाटू देवता की भी पूजा करेंगे। तभी से नंदा राजजात के वॉण में पड़ने वाले 1वें पड़ाव में लाटू देवता की पूजा की जाती है। कहते हैं कि लाटू देवता वॉण गांव से हेमकुंड तक अपनी बहन नंदा को भेजने के लिये भी जाते हैं। और श्री लाटू देवता की वर्ष में केवल एक ही बार पूजा की जाती है।

 

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आज है नाग दीपावली,जानिए क्यों मनाया.....पढ़िए पूरी खबर

धर्मडेस्क@झूठा-सच :- भगवान राम के 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या आगमन पर दीपावली मनायी गई थी.जिसके बाद पुरे भारत में इसे एक प्राचीन सनातन त्यौहार के रूप में मनाया जाता है.यह कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है और भारत के सबसे बड़े और सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। ठीक उसी तरह हर साल  मार्गशीर्ष माह यानी अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग दिवाली का पर्व मनाते है।अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस बार यह पर्व 28 नवंबर 2022 सोमवार को मनाया जा रहा है। दीपावली के बाद क्यों मनाया जाता है नाग दीपावली आइये जानते हैं.

 

क्यों मनाते है नाग दीपावली

ऐसा माना जाता है कि पंचमी तिथि के स्वामी नाग देवता हैं और श्रावण महीने की शुक्ल पंचमी और भाद्रपद की कृष्‍ण पंचमी के बाद सबसे महत्वपूर्ण मार्गशीर्ष माह की पंचमी होती है जिस दिन पाताललोक के देवता नागों की पूजा का प्रचलन है।छोटी दिवाली, दिपावली और फिर देव दिवाली अर्थात कार्तिक पूर्णिमा के 20 दिन बाद नाग दीपावली का पर्व मनाया जाता है। कहते हैं कि इस दिन भी देवता धरती पर उतरते हैं जिनके स्वागत के लिए दीपदान करते हैं।

क्या है इस पूजा का महत्व 

 नाग दीपावली पर घरों में रंगोली बनाकर नाग के प्रतीक के सामने दीपक लगाने से मनोकामना पूर्ण होती है।इस दिन नाग देवता की पूजा करने से वे कुंडली के कालसर्प दोष का पूरी तरह निवारण कर देते हैं। पंचमी पर नागों की पूजा करने से जीवन की हर समस्याओं का समाधान हो जाता है और साथ ही साथ ही जीवन में आ रही दुविधाओं का समाधान भी मिलता है। यदि आपकी कुंडली में विष योग, विष कन्या योग या अश्‍वगंधा योग है तो आप नागपंचमी के दिन विशेष रूप से नागदेव की पूजा करके इस योग से मुक्ति हो सकते हैं।नाग देवता के साथ उनकी बहन मनसा देवी और उनके आराध्य शिव एवं पार्वती की पूजा के बगैर नाग पूजा को अधूरा माना जाता है। नाग देवता का त्योहार उत्तराखंड के चमोली जिले के बांण गांव में स्थित मंदिर में खासकर नाग दिवाली की धूम रहती है। कहते हैं कि यहां पर साक्षात रूप में नागराज विराजमान हैं जिनके सिर पर मणि है।

 

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Lumpi virus : 25 गाय मन्नत पूरी होने के बाद, अपने मालिक के साथ 450KM पैदल चलकर पहुंची द्वारकाधीश मंदिर

द्वारका(गुजरात)ए@झूठा-सच :- भगवान श्रीकृष्ण की नगरी 'द्वारका' में द्वारकाधीश मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खुले हैं लेकिन संभवता यह पहला मौका होगा जब भगवान दरवाजे 25 गायों के लिए खोले गए हो। वह भी जब आधी रात में तब जब मंदिर के विशेष परिस्थितियों में कपाट खोले गए। हैरानी की बात यह थी कि ये गायें अपने मालिक के साथ 450 किलो मीटर पैदल चलकर द्वारका पहुंची थी। इस दौरान कोई VIP नहीं था, फिर भी गर्भगृह बंद करने के बाद दोबारा खोला।

मन्नत पूरी होने पर किए दर्शन

दरअसल, कच्छ में रहने वाले महादेव देसाई की गोशाला की 25 गायें करीब दो महीने पहले लंपी वायरस से ग्रस्त हो गई थीं। इस दौरान पूरे सौराष्ट्र में लंपी वायरस से गायों के मरने का सिलसिला जारी था। इसी बीच महादेव ने भगवान द्वारकाधीश से मन्नत मांगी थी कि अगर उनकी गायें ठीक हो गईं तो वे इन गायों के साथ आपके दर्शन करने जाएंगे।वह उनके साथ पैदल यात्रा कर श्रीकृष्ण के दर्शन करने द्वारका आएंगे। इसलिए अब मन्नत पूरी हुई तो वह उन्हीं गायों को लेकर यहां पहुंचे हैं।

गायों ने पहले परिक्रमा की, फिर प्रसाद भी खाया

25 गायों को द्वारकाधीश भगवान के दर्शन कराने पहुंचे मालिक महादेव देसाई वह बुधवार रात करीब 12 बजे के बाद 450 किमी की पैदल यात्रा कर द्वारका पहुंचे। उनके साथ उनकी गायों ने भी गर्भगृह तक जाकर पहले दर्शन किए, फिर द्वारकाधीश मंदिर की परिक्रमा की। इसके बाद मालिक के साथ-साथ गायों ने भी प्रसाद खाया।

 

 
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भारत में दोपहर 02.39 बजे शुरू होगा चंद्रग्रहण

नई दिल्ली @झूठा-सच :- इस साल का आखिरी पूर्ण चंद्रग्रहण आज दिखाई देगा | हालांकि,इसकी आंशिक और पूर्ण अवस्था की शुरुआत भारत के किसी स्थान से दिखाई नहीं देगा | भारतीय समय के अनुसार दोपहर 02.39 बजे शुरू होगा और इसकी पूर्ण अवस्था दोपहर बाद 03.46 बजे शुरू होगा | पूर्ण अवस्था का अंत शाम 5.12बजे का आंशिक अवस्था का अंत शाम 06.19 बजे होगा |

भारत के अलावा दक्षिण अमेरिका,उत्तर अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया ,एशिया ,उत्तर अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर के क्षेत्रो में भी चंद्रग्रहण दिखाई देगा |  
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देवउठनी एकादशी व्रत, जानें शुभ मुहूर्त और पूजा विधि

हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी व्रत रखा जाता है। इस व्रत को प्रबोधनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस के नाम से भी जाना जाता है। इस साल देवउठनी एकादशी पर रवि योग भी बन रहा है। ऐसे में भगवान विष्णु की पूजा करने से विशेष लाभ मिलेगा। देवउठनी एकादशी को देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा उपासना की जाती है। धार्मिक मान्यता है कि एकादशी तिथि को सच्ची श्रद्धा और भक्ति भाव से भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा उपासना करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

देवउठनी एकादशी का शुभ मुहूर्त

देवउठनी एकादशी की तिथि गुरुवार 3 नवंबर को संध्याकाल में 7 बजकर 30 मिनट से शुरू होकर अगले दिन 4 नवंबर को संध्याकाल 6 बजकर 8 मिनट पर समाप्त होगी। साधक 4 नवंबर को भगवान की पूजा उपासना कर उपवास रख सकते हैं। वहीं, 5 नवंबर को सुबह 8 बजकर 52 मिनट तक पारण कर सकते हैं।

देवउठनी एकादशी पूजा विधि

दशमी के दिन से ही लहसुन, प्याज समेत तामसिक भोजन का त्याग करें। अगले दिन यानी एकादशी को ब्रह्म मुहूर्त में उठें। नित्य कर्मों से निवृत होकर पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान करें। इसके पश्चात, आमचन कर व्रत संकल्प लें। अब सूर्य देव को जल का अर्घ्य दें। फिर भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा फल, फूल, पुष्प, धूप, दीप, कपूर-बाती पीले मिष्ठान आदि से करें। अंत में आरती अर्चना करें। दिन भर उपवास रखें और संध्याकाल में आरती अर्चना करने के पश्चात फलाहार करें। दिन में एक बार फल और जल ग्रहण कर सकते हैं। 5 नवंबर को नित्य दिनों की तरह पूजा उपासना कर पारण करें। इसके बाद ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को अन्न दान कर भोजन ग्रहण करें।
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आज से शुरू होगा महापर्व छठ,जानें शुभ मुहूर्त और धार्मिक महत्व

नेम-निष्ठा और लोक आस्था का महापर्व छठ आज 28 अक्टूबर 2022, शुक्रवार को नहाय खाय के साथ प्रारंभ हो रहा है। दीपावली के छह दिन के उपरांत कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को छठ पर्व मनाया जाता है। शनिवार को खरना के साथ 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू हो जाएगा। व्रती संतान की प्राप्ति, सुख-समृद्धि, संतान की दीघार्यु और आरोग्य की कामना के लिए साक्षात सूर्य देव और छठी मैया की आराधना करती हैं।

30 को अस्ताचलगामी और 31 अक्टूबर को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य

हिंदू पंचांग के अनुसार, 29 अक्टूबर, शनिवार को खरना है। इस दिन व्रती संध्या में आम की लकड़ी से मिट्टी के बने चूल्हे पर गुड़ का खीर बना कर भोग अर्पण करती हैं और प्रसाद के रूप में इसे ग्रहण करती है। इसके साथ ही व्रतियों का 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू हो जाता है। इससे एक दिन पूर्व सोमवार को नहाय खाय के दिन महिलाएं सूर्योदय से पूर्व स्नान कर नए वस्त्र धारण कर पूजा करने के उपरांत चने की दाल कद्दू की सब्जी और चावल का प्रसाद ग्रहण करेंगी।


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खरना के दूसरे दिन अर्थात 30 अक्टूबर, रविवार को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। इस दिन व्रती डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देंगे। इस दिन छठ घाट पहुंचने से पूर्व घर में सभी सदस्य मिलजुल कर साफ-सफाई से शुद्ध देसी घी में ठेकुआ बनाते हैं। इसी ठेकुआ, चावल के आटा और घी से बने लड्डू, पांच प्रकार के फल व दीए के साथ पूजा का सूप सजाया जाता है। दौरा सिर पर रखकर लोग छठ गीत की धुन पर श्रद्धा भाव के साथ घाट पहुंचते हैं।

नवंबर में लगेगा साल का आखिरी चंद्रग्रहण, पढ़ें ग्रहण से जुड़ी खास बातें

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी पर शाम में व्रती अस्ताचलगामी सूर्यदेव को प्रथम अर्घ्य अर्पित करेंगे। अर्घ्य अर्पित करने से पूर्व व्रती जल में खड़े होकर आदिदेव भुवन भास्कर को नमन कर एवं परिवार, समाज की सुख-शांति के लिए मंगल कामना करेंगे। इस साल छठ महापर्व में सूर्यदेव को पहला अर्घ्य 30 अक्टूबर, रविवार को दिया जाएगा। इस दिन सूर्योदय समय छठ पूजा के दिन - 06:31 ए एम व सूर्यास्त समय छठ पूजा के दिन - 05:38 पी एम रहेगा।

 

 

 

 

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आज हैं धनतेरस, जानिए पूजा का शुभ मुहूर्त

धन तेरस से प्रकाश पर्व दिवाली की शुरूआत हो जाएगी। इसी दिन भगवान विष्णु के अवतार भगवान धनवंतरी की भी जयंती है। इस बार धन तरेस पर खास तीन पर्वों का योग बन रहा है। सर्वार्थ सिद्धि एवं अमृत सिद्ध योग भी इसकी महत्ता बढ़ाएंगे। इसी दिन धनतेरस प्रदोषव्रत और हनुमान जयंती का संयोग भी बन रहा है।
यह संयोग 27 वर्ष बाद बन रहा है। धनतेरस को खरीदारी के लिए शुभ माना जाता है। लोग संपत्ति, आभूषण, बर्तन, जमीन, वाहन आदि की खरीदारी करते हैं। त्रयोदशी तिथि में प्रदोष काल में मां लक्ष्मी की पूजा लाभकारी मानी जाती है।
 
इस साल त्रयोदशी तिथि में प्रदोष काल में लक्ष्मी पूजन का शुभ मुहूर्त 22 अक्तूबर को ही है। इसलिए धनतेरस या धन त्रयोदशी का पर्व 22 अक्तूबर को ही मनाना बेहतर रहेगा। 23 अक्तूबर को प्रदोष काल के आरंभ होते ही त्रयोदशी तिथि समाप्त हो जाएगी।
 
धनतेरस की पूजा का शुभ मुहूर्त
शाम 7 बजकर 01 मिनट से रात 8 बजकर 17 मिनट तक
पूजन की अवधि लगभग सवा घंटे रहेगी
मान्यता है शुभ अवधि में लक्ष्मी पूजन करने से सुख-समृद्धि व खुशहाली की प्राप्ति होती है।
धनतेरस पर पांच स्थानों पर जलाएं दीपक
घर के दरवाजे पर
तुलसी के पौधे के नीचे
घर के आंगन में
पूजा स्थल पर
पीपल के पेड़ के नीचे
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कुंभ राशि वाले धनतेरस पर खरीदें सोने या तांबे के बर्तन

झूठा सच @ रायपुर : - धनतरेस का पर्व 22 और 23 अक्टूबर दोनों दिन मनाया जा रहा है। धनतेरस प्रदोष काल का पर्व है , इसलिए 22 अक्टूबर के दिन यह मनाया जाना शुभ है। ऐसा कहा जाता है कि धनतेरस के दिन समुद्र मंथन के समय कलश के साथ माता लक्ष्मी का अवतरण हुआ था, उसी के प्रतीक के रूप में ऐश्वर्य वृद्धि ,सौभाग्य वृद्धि ,धन वृद्धि के लिए बर्तन खरीदने की परम्परा प्रारम्भ हुई, यही नहीं आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वन्तरि महाराज के जयन्ती दिवस के आधार पर भी यह तिथि पुनीत एवं प्रचलित है ।

भगवान धन्वन्तरि का जन्म इसी दिन प्रदोष बेला अर्थात प्रदोष काल में हुआ था इसी कारण प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी में ही धनतेरस का अति पवित्र पर्व मनाया जाता है। इस कारण ही इस दिन स्थिर लग्न अथवा प्रदोष कालीन स्थिर लग्न में बर्तन आदि सहित कोई भी धातु खरीदना शुभफल दायक होता है । विशेषकर इस मुहूर्त्त में धातु या मिट्टी का कलश अवश्य खरीदना चाहिए । इस दिन झाड़ू आदि खरीदने की भी परंपरा है।
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